बालोद (संचार टुडे)। शिगूफेबाजी के शहंशाह ने अगस्त महीने के लिए दो बड़े शिगूफों का फरमान जारी कर दिया है। उन्होंने फरमाया है कि 15 अगस्त को देश के सारे नागरिक अपने हाथों में देश की माटी लेकर अपनी-अपनी सेल्फी खींचें और उसे सोशल मीडिया वगैरा पर इधर-उधर चिपकाने के साथ साथ उन्हें भी भेजें। इसके लिए बाकायदा एक नई साईट भी खोली गयी है। इस फरमान की ख़ास बात यह है कि इसमें बात यहीं तक नहीं रुकेगी, यह इवेंट इससे आगे भी चलने वाला है : “मेरी माटी, मेरा देश” के इस अभियान में इसके बाद एक अमृत कलश यात्रा भी निकलेगी, इन कलशों में मिट्टी के साथ पौधे भी लाये जायेंगे — इस माटी के साथ ये पौधे राष्ट्रीय युद्ध स्मारक – नेशनल वार मेमोरियल – के करीब के, ठीक इसी काम के लिए बनाए जाने वाले परिसर में, एक साथ रोपकर अमृत वाटिका बनाई जायेगी और बकौल उनके इस तरह “एक भारत श्रेष्ठ भारत” का भव्य स्मारक बनेगा!! दूसरा फरमान उन्होंने अपने एनडीए के सांसदों को दिया है और उनसे कहा है कि इस रक्षाबंधन पर वे मुस्लिम महिलाओं से राखी बंधवायें। इस आव्हान में हालांकि ऐसा नहीं कहा गया है, लेकिन पालित-पोषित मीडिया ने, लगभग सभी ने, पसमांदा मुसलमानों को इसमें तरजीह देने का इशारा किया है।
यह न पहले शिगूफे है, न आख़िरी। पिछले 9 वर्षों में शिगूफेबाजी ही तो हुयी है। शुरुआत ही झाड़ू लगाते हुए फोटो खिंचवाने के हास्यास्पद पाखण्ड से हुयी है — इसमें पहले कूड़ा-कचरा बगराने और उसके बाद एक ही जगह लम्बी-लम्बी झाड़ूएं उठाकर दर्जन-दो दर्जन नेता-नेतानियो, अफसर-अफसरानियों के अलग-अलग भंगिमा में तस्वीरें उतरवाने के कारनामे हुए ; इसे स्वच्छ भारत अभियान का नाम दिया गया। यह अलग बात है कि जितना शोर मचाया घर में सूरज पालने का, उतना काला और हो गया वंश उजाले का!! मतलब यह कि सफाई से ज्यादा गंदगी फ़ैल गयी, आँगन से वातायन तक दुर्गन्ध बस गयी और चारों ओर फ़ैल गयी। यही गत बाकी के सभी शिगूफों की हुयी। कोरोना की महामारी के दौरान तो इनके नयेपन के मामले में जैसे सारी रचनात्मक उर्वरता चरम पर जा पहुंची थी : लॉकडाउन का शुरुआती ड्रेस रिहर्सल जनता कर्फ्यू से हुआ, इसके बाद 9 तारीख को 9 बजे 9 मिनट तक बत्ती बुझाकर अँधेरे में कोरोना के वायरस को रास्ता भुलाकर गफलत में डालने का निर्देश राष्ट्र को दिया गया। इसके बाद भी यह दुष्ट वायरस नहीं माना, तो ताली बजाने, थाली बजाने, दीये और मोमबत्ती जलाने, “गो कोरोना गो” के नारे लगवाने के नए-नए आव्हान आये। कुल मिलाकर यह कि जिसकी उस समय सबसे ज्यादा जरूरत थी, उस ऑक्सीजन, पेरासिटामोल, जिंक, विटामिन सी और बी कॉम्प्लेक्स जैसी मामूली इलाज की उपलब्धता को छोड़कर बाकी सब हुआ। लोककथाओं में आता है कि एक बार जंगल के सभी प्राणियों ने मिलकर, न जाने क्या सोचकर एक बंदर को अपना राजा चुन लिया। अब जैसे ही उस जंगल में शिकारियों के एक समूह ने हमला बोला, वैसे ही जंगल की सारी आबादी अपने राजा के पास पहुंची और नेतृत्व कर इस समस्या का समाधान निकालने की मांग करने लगी। राजा ने तुरंत ही एक पेड़ से दूसरे पेड़, एक डाली से दूसरी डाली पर छलांग लगाना शुरू कर दिया, अपनी कलाबाजी दिखाता रहा। आजिज आये जंगलवासियों ने उससे पूछा कि जंगल पर हमला हुआ है और तुम ये सब उछलकूद कर रहे हो, कुछ करते क्यों नहीं? राजा बने बंदर ने मासूमियत से जवाब दिया : “मैं पूरी ताकत लगाकर वह सब कर तो रहा हूँ, जो मैं कर सकता हूँ !!” पूरे कोरोनाकाल में एक के बाद एक शिगूफे छोड़कर यही लोककथा दोहराई और सबको दिखाई गयी।
बात सिर्फ इतनी होती, तब भी बर्दाश्त कर ली जाती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस तरह के दिखावटी जुमलों वाले आव्हानों के पीछे इतना भर नहीं है, इससे ज्यादा कुछ है और जो है, वह गंभीर है। इन दिखावों के पीछे एक इरादा अपने अपकर्मों और देश तथा जनता के साथ किये गए अपराधों को छुपाने का है। नोट बन्दी, जिसके असर से भारतीय अर्थव्यवस्था और जनता का बड़ा हिस्सा आज तक भी पूरी तरह नहीं उबर पाया, के वक़्त का ऐसा ही शिगूफाई कथन कि “50 दिन में सब कुछ ठीक न होने पर चौराहे पर खड़ा करके सजा दे देना”, लोगों को आज भी याद है। चुनाव जीतने के बाद पहली बार संसद में जाने पर उसकी सीढ़ियों पर लगाई गयी लम्बलेट भी लोग भूले नहीं है। उसके बाद संसदीय लोकतंत्र का जो हश्र हुआ, वह सामने है। इन दिनों चल रहे संसद सत्र में तो वे जाने से ही कतरा-सकुचा रहे हैं। एक निश्चित अंतराल के बाद रोने का कारनामा तो लगता है कि अब इतना पुराना पड़ गया है कि खुद अभिनेता ने ही उसे अनेक समय से नहीं दोहराया।
इन शिगूफों का दूसरा इरादा आभासीय उजाले की आभा – होलोग्राम – की बिना पर नकली गौरव, लिजलिजा राष्ट्राभिमान पैदा करने का होता है। बुलेट ट्रेन के ख्याली पुलाव से यह सिलसिला शुरू हुआ। कुछ चुनिन्दा रेलवे स्टेशनों को चमचमा कर उन्हें विकास का सूर्योदय साबित करते हुए अब पूरी तरह अव्यावहारिक और अलाभकारी साबित हो चुकी वन्दे भारत रेलगाड़ियों के ढकोसले तक पहुँच गया है। इसी तरह का आवरण डालने की हालिया हरकत अमरीकी संसद में इत्ते बार तालियाँ बजने और उत्ते बार खड़े होकर जै-जैकार करने की खबरों से फर्जी गर्व पैदा करने की कोशिशों में दिखी, जबकि असल में इनके जरिये उन आपराधिक समझौतों को छुपाया जा रहा था, जिनका असर इस देश की विदेश नीति से लेकर आर्थिक-औद्योगिक परिस्थिति के लिए विनाशकारी होने वाला है। ‘बेटी बचाओ’ के खोखले आव्हान के बाद देश भर में बेटियों और उनकी माँओं पर बढ़ते अत्याचारों से ध्यान बंटाने के लिए “सेल्फी विथ डॉटर” का शिगूफा छोड़ा गया। इधर देश भर में दलितों की दुर्दशा करने के लिए सामाजिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर सारे घोड़े खोल दिए गए, उधर डॉ. अम्बेडकर के नाम पर विराट स्मारक बनाने का शिगूफा छोड़ दिया। इस काम में अब उनके बाकी लगुये-भगुये भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं। एक भाजपाई आदिवासी के सिर पर मूतता है, दूसरा भाजपाई मुख्यमंत्री निवास पर उसी आदिवासी के पाँव धोता है। इन चंद उदाहरणों से ही सारे शिगूफों की चोंचलेबाजी उजागर हो जाती है ।
मगर इन सब आव्हानों के एक बड़े हिस्से का मकसद इन सबके साथ इससे आगे का, किसी न किसी बहाने भीड़ जुटाने और उसे उन्मादी बनाने का है। नए-नए प्रतीक गढ़ने, उनके नाम पर कुछ अर्थहीन काम करवाने की इस कवायद के साथ जो हुजूम इकट्ठा किये जाते हैं, उन्हें संघ-भाजपा के एजेंडे के हिसाब से एक खास रुझान में ढालकर जुनूनी बनाने के सायास प्रयत्न किये जाते हैं। इनके द्वारा गढ़ा गया ऐसा ही एक प्रतीक बुलडोजर है, जिसका मुंह अल्पसंख्यकों और दलित आदिवासियों के घरों और दुकानों की दिशा में ही रहता है। हाल के दिनों में इसे नायक का दर्जा दे दिया गया है – यूपी के पिछले चुनाव में तो इन बुलडोजरों ने इतनी प्रमुखता पायी थी कि मोदी और अमित शाह की तस्वीरें भी गौण दिखने लगी थीं। इस तरह के भांग-धतूरों के मेल से फर्जी राष्ट्रवाद का गाढ़ा घोल बनाया जाता है, फिर उसमें नफरत का तड़का लगाया जाता है। इसी के साथ अलग-अलग आव्हान के प्रति रुख के आधार पर असहमत लोगों की शिनाख्त की जाती है, फिर उसे मथ कर हम और वो का सोच बनाया जाता है – जिसके नतीजे जयपुर-मुम्बई ट्रेन जैसे निकलते हैं ।
हिटलर और मुसोलिनी वाले फासिज्म के इतिहास में प्रतीकों के इसी तरह गढ़ने और उनके अति दोहन की अनेक मिसालें हैं। इनमें से कई को तो उन्हें अपना गुरु मानने वाले उनके भारतीय बटुकों ने हूबहू अपनाया है। पिछले स्वतन्त्रता दिवस पर घर-घर तिरंगा लगाने और तिरंगे झंडे को अपनी डीपी और प्रोफाइल बनाने के आव्हान इसी तरह के हैं। कुछ समय पहले यह कारगुजारी सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के बजने के बहाने हुयी। यह विडंबना नहीं, तो क्या है कि आजादी का महत्व समझाने और आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हिन्दुस्तानियों के नाम पर कलश यात्राएं निकलवाने का आव्हान वे दे रहे हैं, जिनका स्वतन्त्रता संग्राम में रत्ती भर का योगदान नहीं है। तिरंगे का प्रतीक वे इस्तेमाल करना चाहते हैं जो हमेशा इसे राष्ट्रीय ध्वज बनाने के विरुद्ध रहे।
इस तरह की ढीठ शातिर चतुराई यही दिखा सकते हैं कि एक तरफ तो नूंह – मेवात के हिन्दू मुस्लिम बाशिंदों से कहें कि “फूल मालाएं तैयार रखो, तुम्हारे जीजा आ रहे हैं”, मणिपुर में सामूहिक बलात्कार के बाद स्त्रियों को निर्वसन घुमायें और बजाय लज्जित होने के “ऐसी तो सैकड़ों घटनाएं घटी हैं”, कहकर देश की जनता को जीभ चिढ़ायें और वहीँ पूरी बेशर्मी के साथ रक्षाबन्धन पर मुस्लिम महिलाओं को बहन बनाने का आव्हान करें। अगर शिगूफेबाजी के शहंशाहे आलम वाकई में अपने इन आव्हानों को लेकर गंभीर हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिये कि वे खुद इसे अमल में लायेंगे और रक्षाबंधन के दिन अपने ही गुजरात की बहन बिल्किस बानो के घर जाकर उनसे राखी बंधवा कर आयेंगे, खट्टर को नूंह के उन गाँवों में राखी बंधवाने भेजेंगे, जहां उनके विचार सहोदर मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी फसाद मचाकर लौटे हैं, उन घरों में तो जरूर ही जायेंगे, जिन पर बिना किसी वजह के बुलडोजर चलवा कर उनकी सरकार ने वह घिनौना काम पूरा किया, जिसे ये दोनों और इनके साथ गए बाकी नफरती भेड़िये नहीं कर पाए थे।
आने वाले दिनों में इसी तरह के और आव्हान आने वाले हैं। यह 2024 का डर है। लगता है, इन आव्हानों को देने वाले और उनका पूरा गिरोह समझता है कि डर लगे, तो हनुमान चालीसा गाने से काम चल जाएगा। इसीलिये जितना ज्यादा डर बढ़ता जाता है, ये उतना ही ज्यादा जोर से गाने लगते हैं। हालांकि कर्नाटक में डर के मारे आख़िरी दिनों में वे खुद इसे आजमा कर देख भी चुके हैं कि जब जनता ठान लेती है, तो कोई चौबीसा या पचासीसा काम नहीं आता। नूंह -मेवात के किसान दंगाइयों के खिलाफ अपनी एकजुटता से सपष्ट रूप से इस संदेश की पेशगी दे चुके हैं।