कोटा:  ये आत्महत्याएं नहीं, हत्या हैं! कौन है इन युवाओं के खून का जिम्मेदार?- आलेख: राजेन्द्र शर्मा

Rajendra Sharma

बालोद। कोटा में कोचिंग कर रहे दो छात्रों ने इसी रविवार को आत्महत्या कर ली। एलन कोचिंग के छात्र, महाराष्ट्र के आविष्कार संभागी ने एक टैस्ट के बाद, अपने कोचिंग इंस्टीट्यूट की ही छत से छलांग लगा दी और अपनी जान दे दी। वह कोटा में अपने नाना-नानी के साथ रहकर, कोचिंग कर रहा था। उसी रोज, बिहार के आदर्श ने होस्टल के कमरे में फांसी लगाकर अपनी जान दे दी। इन दो युवाओं की आत्महत्या के साथ, इसी साल देश में कोचिंग उद्योग के सबसे बड़े केेंद्र कोटा में, छात्रों की आत्महत्याओं का आंकड़ा 23 पर पहुंच गया है। और यह समस्या किस तरह विकराल से विकराल होती जा रही है, इसका अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले साल कोटा में ही ऐसी आत्महत्याओं का आंकड़ा कुल 15 था। इस बार यह संख्या अब तक ही 23 तक पहुंच चुकी है, जबकि अभी अगस्त का महीना भी पूरा नहीं हुआ है और पूरा एक तिहाई साल आगे पड़ा हुआ है।

Kota: These are not suicides, they are murders! Who is responsible for the blood of these youth?- Article: Rajendra Sharma
Kota: These are not suicides, they are murders! Who is responsible for the blood of these youth?- Article: Rajendra Sharma

बेशक, इस विकराल रूप लेती समस्या के सामने अधिकारीगण जो भी हैं और जो उन्हें सूझ रहा है, अपनी ओर से करने की कोशिश कर रहे हैं। एक ही दिन में दो छात्रों की आत्महत्या की खबर आने के बाद, कोटा के जिलाधिकारी ने एक एडवाइजरी जारी कर, कोटा के सभी कोचिंग इंस्टीट्यूटों से दो महीने तक नीट (नेशनल एलिजिबिलिटी टैस्ट-एनईईटी) तथा आईआईटी-जी (जनरल एंट्रेंस टैस्ट) की कोचिंग कर रहे छात्रों के टैस्ट रोकने का आदेश दिया है। इससे पहले, 14 अगस्त को सामने आई एक और छात्र की आत्महत्या की घटना के बाद, जो कि अगस्त के महीने में ही ऐसी चौथी घटना थी, कोटा में कोचिंग छात्रों के होस्टलों के कमरों में छत से लटकने वाले पंखों में स्प्रिंग लगाने जैसे कदमों की शुरूआत की गई थी, जिससे छात्रों को आत्महत्या के इस अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध साधन का सहारा लेनेे से रोका जा सके। इससे पहले से, ऐसी घटनाओं के बाद, हर बार इन छात्रों की काउंसिलिंग और यहां तक कि बच्चों के अभिभावकों की काउंसिलिंग के भी सुझाव दिए जाते रहे हैं, जिससे बच्चों पर किसी भी कीमत पर सफलता के दबाव और विफलता के डर को घटाया जा सके। बहरहाल, साफ है कि ये सभी उपाय/सुझाव न सिर्फ बुरी तरह से विफल साबित हुए हैं, बल्कि समस्या से दो-चार होने की किसी गंभीर कोशिश के बजाय, अगंभीर से लेकर हास्यास्पद ही साबित हुए हैं।

जाहिर है कि कोटा के कोचिंग छात्रों की या नीट, जी जैसी डाक्टरी, इंजीनियरिंग आदि की प्रतिष्ठित संस्थाओं में दाखिले की परीक्षाओं में सफलता के लिए अन्यत्र कोचिंग का सहारा लेने वाले किशोरों व युवाओं की, बढ़ती संख्या को आत्महत्या के अंधेरे रास्ते पर धकेलने वाले कारकों की, अपनी भी कुछ विशिष्टताएं हैं, जो इन कोचिंग संस्थाओं के छात्रों की स्थिति को और भी खतरनाक बना देती हैं। फिर भी एक बात जिसकी चर्चा बहुत कम ही होती है, यह है कि इसका सीधा संबंध डाक्टरी, इंजीनियरिंग आदि की प्रतिष्ठित संस्थाओं में प्रवेश की परीक्षाओं को, सबके लिए समान स्तर सुनिश्चित करने के नाम पर, ज्यादा से ज्यादा एकीकृत, किंतु वास्तव में केंद्रीयकृत किए जाने की राजकीय नीति से भी है। यह ऐसी राजकीय नीति है, जिसे आमतौर पर उदारीकरण की नीतियों तथा खासतौर पर प्रोफेशनल शिक्षा के अंधाधुंध निजीकरण की नीतियों के जरूरी हिस्से के तौर पर, पिछले दो-तीन दशकों में तेजी से आगे बढ़ाया गया है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ इस कोचिंग उद्योग के तेजी से फलने-फूलने के लिए रास्ता बना रही है, युवा आत्महत्याओं की बढ़ती महामारी को भी तेजी से देश भर में फैला रही है।

प्रतिष्ठित संस्थाओं में प्रवेश की परीक्षाओं के बढ़ते केंद्रीयकरण और युवाओं की बढ़ती आत्महत्याओं के इस सीधे रिश्ते का सबसे प्रत्यक्ष सबूत, मेडिकल शिक्षा में दाखिले की नीट नामक परीक्षा है। नीट परीक्षा की शुरूआत से देश के कई हिस्सों में और खासतौर पर तमिलनाडु में इस परीक्षा को थोपे जाने के खिलाफ शीर्ष राजनीतिक स्तर तक से आवाजें उठती रही हैं। और इसकी एक वजह यह भी है कि तमिलनाडु पर इस परीक्षा के थोपे जाने की शुरूआत ही, मेडिकल की पढ़ाई के लिए दाखिले के लिए उत्सुक, प्रतिभाशाली बच्चों-बच्चियों की आत्महत्याओं से हुई थी और हर साल यह परीक्षा तमिलनाडु में कुछ-न-कुछ जानें निगल ही लेती है।

इसी साल, 15 अगस्त से ठीक पहले इस परीक्षा के नतीजों के साथ आई बहुत ही हृदयविदारक घटना में, दो बार की विफलता के बाद, जगदीश्वरन नामक किशोर ने ही अपनी जान नहीं दे दी, उसकी आत्महत्या से विचलित उसके पिता ने भी, उसकी आत्महत्या के चंद घंटों में ही अपनी जान दे दी। इस तरह, इस परीक्षा ने क्रूर काल बनकर पूरे के पूरे परिवार को ही खत्म कर दिया। इस घटना से विचलित, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने न सिर्फ जल्द ही नीट का ही अंत हो जाने की भविष्यवाणी की है, बल्कि यह भी याद दिलाया है कि तमिलनाडु ने अब तक इस परीक्षा के ही हाथों, अपने 16 प्रतिभाशाली बच्चों को हमेशा के लिए खोया है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि इतने बड़े देश में, इतने सारे बच्चे प्रतिष्ठित शिक्षा धाराओं में प्रवेश चाहने वाले होंगे। लेकिन, सबको तो प्रवेश नहीं दिया जा सकता है। जिन्हें प्रवेश नहीं मिलता है, वे अगर आत्महत्या करने पर उतर आएं, तो इसमें प्रवेश परीक्षा की व्यवस्था क्या कर सकती है? सीमित मौकों के हिसाब से छंटनी जरूरी है। और पूरे देश के लिए समान प्रवेश परीक्षा ही न्यायपूर्ण तथा तार्किक तरीके से यानी कम प्रतिभावानों को अलग करने के जरिए, छंटाई का यह काम कर सकती है। बहरहाल, तमिलनाडु का उदाहरण बताता है कि प्रतिभावानों को छांटने की यह पूरी दलील ही कागजी और झूठी है।

यह एक जानी-मानी शिक्षाशास्त्रीय सच्चाई है कि कोई भी परीक्षा, सीमित हद तक ही प्रतिभा की जांच कर पाती है। और हमारे जैसे बहुत भारी विविधताओं वाले देश में तो ऐसी परीक्षाओं की उपयोगिता और भी सीमित है। यहां परीक्षा का दायरा जितना ज्यादा फैलता जाएगा, प्रतिभा या उपयुक्तता की जांच की उसकी क्षमता उतनी ही घटती जाएगी। अलग-अलग भाषाओं में पढ़ाई कराने वाले, एक हद तक अलग-अलग पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले राज्यों के लिए, एक अखिल भारतीय परीक्षा का विचार ही बहुत खोखला और वास्तव में नुकसानदेह है।

याद रहे कि तमिलनाडु में नीट-विरोधी आंदोलन की शुरूआत, जिस छात्रा की आत्महत्या से हुई थी, वह राज्य में उस वर्ष से पहले तक चालू पात्रता चयन व्यवस्था के हिसाब से, मेडिकल कालेज में दाखिले की अपनी पात्रता पहले ही साबित कर चुकी थी। इसके बाद भी, जब नीट के आधार पर उसे अपात्र बना दिया गया, उसका दिल टूट गया और उसने अपनी जान दे दी। इसीलिए, जनतांत्रिक छात्र आंदोलन समेत, वास्तव मेें जनतंत्र की कद्र करने वाली तमाम ताकतें, नीट जैसी केंद्रीयकृत प्रवेश परीक्षाओं का विरोध करती आई हैं।

लेकिन, दुर्भाग्य से एकरूपता को एकता का पर्याय मानने वाली देश की मौजूदा सरकार, ऐसी परीक्षाओं की सीमाओं को लेकर बार-बार चेताए जाने के बावजूद, ऐसी परीक्षाओं का दायरा बढ़ाती ही जा रही है। देश भर के लिए केंद्रीयकृत विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा, इसी युवाघाती अभियान का एक और उदाहरण है।

हां! केेंद्रीयकृत विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा नीट की जितनी जानलेवा शायद न साबित हो, क्योंकि विश्वविद्यालय की शिक्षा में प्रवेश मिलने – न मिलने से, नीट जैसी जानलेवा अपेक्षाएं नहीं लगी हुई हैं।

लेकिन, इसीलिए इस परीक्षा ने अपने शुरूआती वर्षों में ही लाखों की संख्या में छात्रों को विश्वविद्यालयी पढ़ाई से दूर खदेड़ दिया है और यह पढ़ाई करने वालों के दायरे को, जो इस देश में पहले ही बहुत सीमित था, और भी सीमित करना शुरू कर दिया है।

बहरहाल, कोटा कोचिंग छात्रों और आम तौर पर कोचिंग छात्रों की आत्महत्याओं पर लौटें। ये छात्र कौन हैं? बेशक, कोचिंग की पढ़ाई और खासतौर पर कोटा जैसे केंद्रों में कोचिंग की पढ़ाई, काफी महंगी है। यह दूसरी बात है कि यह कोचिंग जिस डाक्टरी, इंजीनियरी आदि की पढ़ाई के लिए दाखिले की है, वह पढ़ाई भी अब देश में आय के अनुपात में काफी महंगी हो चुकी है।

निजीकरण ने इन प्रोफेशनल कोर्सों की पढ़ाई को इतना महंगा बना दिया है कि साधारण मध्यवर्गीय परिवार तक, इस पढ़ाई का बोझ आसानी से नहीं उठा सकता है, फिर साधारण मेहनतकश परिवारों की तो बात ही क्या करना। पहले कोचिंग का खर्च और फिर दाखिला मिल जाए तो पढ़ाई का खर्च, दोनों को उठाना संपन्नतर परिवारों के लिए ही संभव है।

हां! इस संबंध में दो अलग-अलग या दोनों एक साथ चलने वाले विकल्प भी देखने को मिलते हैं। पहला, दाखिले की सूरत में पढ़ाई के लिए कर्ज का बोझ बच्चे के ऊपर डाला जा सकता है, जो नाकामयाबी के डर को जानलेवा बना सकता है। दूसरे, साधारण परिवार, बच्चा अगर पढ़ाई में अच्छा नजर आता हो तो, उसके दाखिले को ही अपनी आर्थिक मुक्ति का इकलौता रास्ता मानकर, घर-जमीन या दूसरे सभी साधन बेचकर, बच्चे की महंगी पढ़ाई का बंदोबस्त कर सकता है।

कोचिंग के मामले में तो खासतौर दूसरा ही विकल्प संभव है, क्योंकि कोचिंग के लिए बैंक से शिक्षा ऋण नहीं मिल सकता है। दोनों ही सूरतों में परिवार की अपेक्षाओं का असह्य बोझ, किशोरों-युवाओं को विफलता की जरा सी फिसलन या आशंका भर से, आत्मघात की अंधेरी खाई में धकेल सकता है। हैरानी की बात नहीं है कि अपेक्षाकृत साधारण परिवारों से आने वाले बच्चे ही, कोई और रास्ता ही नहीं दिखाई देने के चलते, हताशा में आत्मघात की खाई में ज्यादा छलांग लगाते हैं।

ये आत्महत्याएं नहीं, हत्याएं हैं, जिनके लिए हमारी वर्तमान व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसने युवाओं के लिए अवसरों को इस कदर सीमित कर दिया है, इस कदर मुश्किल तथा संयोगाश्रित बना दिया है कि एक-एक विफलता की आशंका, संवेदनशील किशोरों-युवाओं के लिए, जिंदगी और मौत का सवाल बन जाती है। याद रहे कि बढ़ते चौतरफा आर्थिक संकट के बीच, अवसरों का लगातार सिकुड़ना, पूरे समाज में ही इस रुग्णता को फैला रहा है और बढ़ा रहा है। यह संयोग ही नहीं है कि एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2019 में देश भर में आत्महत्याओं की संख्या 1.3 लाख थी, जो 2020 में बढ़कर 1.5 लाख हो गई और 2021 में और बढ़कर 1.64 लाख हो गई यानी 2020-2021 के बीच ही, पूरे 7.1 फीसद बढ़ गई। फिर भी प्रतिभाशाली किशोरों-युवाओं की जान लेने वाला चेहरा, मौजूदा व्यवस्था का सबसे हिंसक, सबसे क्रूर चेहरा है।

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